ग्वालियर। वेद भारत के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान का मूल स्रोत हैं, इनकी संख्या चार है। इनमें ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद शामिल हैं। वेद प्राचीन भारत के साहित्य हैं और दुनिया के सबसे प्राचीन लिखित ग्रंथ होने का गौरव भी वेदों को ही प्राप्त है। यही नहीं हिन्दू धर्म के मूल में इन्हीं ग्रंथों की भूमिका है। वेदों को ईश्वर की वाणी समझा जाता है। वेद, विश्व के उन प्राचीनतम ग्रंथों में से हैं जिनके ऋचाओं का इस्तेमाल आज भी किया जाता है।
आइए जरा विस्तार से जानते हैं, कि आखिर क्या हैं ये ‘वेद’ और क्यों इन्हें हिन्दू धर्म का सर्वोच्च ग्रंथ माना जाता है। लेकिन, इससे पहले हम आपको दो बातें जरूर बताना चाहेंगे। पहला ये कि 7 नवम्बर 2003 को यूनेस्को यानी युनाइटेड नेशन्स एजुकेशनल, साइंटिफिक एंड कल्चरल ऑर्गनाइजेशन द्वारा वेदपाठ को ”मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति” घोषित किया जा चुका है। दूसरा यह कि, हाल ही में भारत सरकार द्वारा सीबीएसई के तर्ज पर ही वैदिक शिक्षा बोर्ड बनाने की पहल भी शुरू कर दी गई है।
‘वेद’ का अर्थ
दरअसल ‘वेद’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के ‘विद्’ धातु से हुई है। इस प्रकार वेद का शाब्दिक अर्थ है ‘ज्ञान के ग्रंथ’। इसी ‘विद्’ धातु से ‘विद्वान’ (ज्ञानी), ‘विद्या’ (ज्ञान) और ‘विदित’ (जाना हुआ) शब्द की उत्पत्ति भी हुई है। कुल मिलाकर ‘वेद’ का अर्थ है ‘जानने योग्य ज्ञान के ग्रंथ’।
चार हैं ‘वेद’
वेदों की संख्या चार हैं। आइए अब जरा इन चार वेदों की विशेषताओं के बारे में थोड़ा समझते हैं।
ऋग्वेद : वेदों में इसे सबसे पहला स्थान प्राप्त है। इसे दुनिया का सबसे प्राचीन लिखित ग्रंथ माना गया है। इसमें ज्ञान प्राप्ति के लिए लगभग 10 हजार गूढ़ मंत्रों को शामिल किया गया है। इसमें देवताओं के गुणों का विस्तार वर्णन मिलता है। ये सभी मंत्र कविता और छंद रूप में हैं।
सामवेद : चतुर्वेद के क्रम में यह दूसरा ‘वेद’ है। इसमें अलौकिक देवताओं की उपासना के लिए गाये जाने वाले तकरीबन 1975 मंत्र शामिल हैं।
यजुर्वेद : यह तीसरा वेद है। इसमें कार्य (क्रिया), यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये गद्यात्मक मन्त्र हैं। इन मंत्रों की संख्या 3750 हैं।
अथर्ववेद : चतुर्वेद के क्रम में सबसे आखिरी और चौथा वेद है। इसमें गुण, धर्म, आरोग्य के साथ-साथ यज्ञ के लिये कवितामयी मंत्र भी शामिल हैं। इन मंत्रों की कुल संख्या 7260 है।
‘ईश्वर कृत’ हैं वेद
वेदों को अपौरुषेय भी कहा जाता है। ‘अपौरुषेय’ का अर्थ यह हुआ कि वो कार्य जिसे कोई व्यक्ति ना कर सकता हो, यानी ईश्वर द्वारा किया हुआ। अत: परब्रह्म को ही वेदों का रचयिता माना जाता है।
श्रुति, स्मृति और संहिता
वेदों को ‘श्रुति’ यानी ‘सुना हुआ’ भी कहते हैं। जबकि, अन्य हिन्दू ग्रंथों को ‘स्मृति’ कहते हैं, यानि मनुष्यों की बुद्धि या स्मृति पर आधारित ग्रंथ। वहीं वेद के सबसे प्राचीन भाग को ‘संहिता’ कहा जाता है। सुन और भली-भांति समझकर इसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने के कारण ही इन्हें ‘श्रुति’ कहा जाता है। स्वत: प्रमाणित होने के कारण इनका दूसरा नाम ‘आम्नाय’ भी है। गुरु के मुख से सुनकर तथा परिश्रमपूर्वक अभ्यास और याद करने के कारण ही वेद आज भी संरक्षित हैं।
ऐसे अवतरित हुए वेद
श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार सर्वप्रथम अग्नि, वायु, आदित्य और अंगीरा ऋषियों को वेदों का ज्ञान मिला। इसके बाद इसका ज्ञान सप्तऋषियों तक पहुंचा।
वेदों के ऋषिगण
जैसा कि आप ये जान ही चुके हैं कि वेद, ‘अपौरुषेय’ यानी ईश्वरकृत हैं फिर भी इन्हें मनुष्यों ने ही लिपिबद्ध किया है। ये वो मनुष्य थे जिन्हें हम प्राचीन भारत के ऋषिगण कहते हैं। ‘श्रुति’ आधारित ज्ञान को ऋषिगणों के माध्यम से ही भू- लोक के अन्य विद्वानों के बीच लाया जा सका। जैमिनी, व्यास, पराशर, कात्यायन, याज्ञवल्क्य, विश्वामित्र और पाणिनी आदि ऋषियों को वेदों का सर्व ज्ञाता माना जाता है। इसके अलावा मध्यकाल के ऋषि सायण को भी वेदों का अच्छा ज्ञाता माना जाता है।
वेदों का काल
सनातन धर्म में यह मान्यता है कि वेद सृष्टि के आरंभ (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि) के समय ही स्वयं ब्रह्मा द्वारा रचे गये थे। अगर इस दृष्टिकोण से देखें तो इन्हें अवतरित हुए 1,96,08,53,117 वर्ष होंगे। मान्यता है कि शुरुआत में वेद ‘श्रुति’ रूप में रहे और इन्हें काफी बाद में लिपिबद्ध किया गया।
वेदों के विषय
वेदवेत्ता महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती के अनुसार ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान ही वेदों के प्रमुख विषय हैं। वैसे तो वेद ‘एकेश्वरवादी’ यानी परब्रह्म को ही समर्पित हैं फिर भी इनमें प्रकृति की अन्य शक्तियों को भी देव रूप में प्रस्तुत किया गया है।
ऋग्वेद में अग्नि, वायु, मित्रावरुण, अश्विनी कुमार, इंद्र, विश्वदेवा, सरस्वती, मरुत, प्रजापति, वरुण, उषा, पूषा, सूर्य, वैश्वानर, ऋभुगण, नद्य: रुद्र, सविता आदि देवी-देवताओं को समर्पित ऋचाएं शामिल हैं। ।
सामवेद में अग्नि, वायु, पूषा, विश्वदेवा, सविता, पवमान, अदिति, उषा, मरुत, अश्विनी, इंद्राग्नि, द्यावापृथिवी, सोम, वरुण, सूर्य, गौ:, मित्रावरुण को समर्पित ऋचाएं शामिल हैं।
यजुर्वेद में सविता, यज्ञ, विष्णु, अग्नि, प्रजापति, इंद्र, वायु, विद्युत, धौ, द्यावा, ब्रह्मस्पति, मित्रावरुण, पितर, पृथ्वी आदि देवी-देवताओं को समर्पित ऋचाएं शामिल हैं।
अथर्ववेद में वाचस्पति, पर्जन्य, आप:, इंद्र, ब्रहस्पति, पूषा, विद्युत, यम, वरुण, सोम, सूर्य, आशपाल, पृथ्वी, विश्वेदेवा, हरिण्यम:, ब्रह्म, गंधर्व, अग्नि, प्राण, वायु, चंद्र, मरुत, मित्रावरुण, आदित्य आदि देवी-देवताओं को समर्पित ऋचाएं शामिल हैं। वेदों के मुख्य विषय देव, अग्नि, रूद्र, विष्णु, मरुत, सरस्वती इत्यादि जैसे शब्द पर ही आधारित हैं।
धर्मशास्त्र का आधार, दर्शन और विज्ञान का स्रोत
वैदिक ऋचाओं में छिपे ज्ञान का विद्वान ऋषिगणों ने बड़ी ही सूक्ष्मता के साथ अध्ययन किया है। ऋषि कणाद ने ‘तद्वचनादाम्नायस्य प्राणाण्यम्’ और “बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे” कहकर वेद को दर्शन और विज्ञान का स्रोत माना है। वहीं सनातन धर्म के सबसे प्राचीन नियम विधाता महर्षि मनु ने ”वेदोऽखिलो धर्ममूलम् – खिलरहित वेद” कहकर इसे धर्मशास्त्रों का आधार बताया है।
वेदों का वर्गीकरण
ऐसी मान्यता है कि आज जो हमें चार वेद मालूम पड़ते हैं वो प्राचीनकाल में एक ही थे। बाद में इन्हें पढ़ना और याद रख पाना कठित मालूम हुआ जिसके बाद वेद के तीन अथवा चार विभागों में बांटा गया। इन्हें ‘वेदत्रयी’ या ‘चतुर्वेद’ कहा जाने लगा। आइए ‘वेदत्रयी’ के बारे में थोड़ा विस्तार से समझते हैं।
वेदत्रयी
पूरे संसार में शब्द प्रयोग की तीन शैलियां होती हैं, यथा पद्य (कविता), गद्य और गान। वेदों के मंत्र भी इन तीन विभागों के अंतर्गत बंटे हुए हैं। इनमें वेद के ‘पद्य’ विभाग में ऋगवेद और अथर्ववेद को रखा गया है, वहीं ‘गद्य’ विभाग में यजुर्वेद तो ‘गायन’ विभाग में सामवेद को रखा गया है।
इन तीन प्रकार की शब्द प्रकाशन शैलियों के आधार पर ही शास्त्र एवं लोक में वेद के लिये ‘त्रयी’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
वेदों को समझने के लिए जरूरी हैं ‘वेदांग’
स्वयं परब्रह्म द्वारा रचित वेदों को समझना हर किसी के लिए आसान नहीं है। इसके लिए वेदांगों का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है। जैसा कि ‘वेदांग’ नाम से ही परिचय मिलता है कि ये वेदों के अंग हैं। इसनकी संख्या 6 है। इनमें क्रमश: व्याकरण, शिक्षा, निरुक्त, ज्योतिष, कल्प और छंद शामिल हैं। आइए अब इनके बारे में थोड़ी जानकारी हासिल करें।
व्याकरण : इससे प्रकृति और प्रत्यय आदि के योग से शब्दों की सिद्धि और उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध होता है।
शिक्षा : इसमें वेद मन्त्रों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है।
निरुक्त : वेदों में जिन शब्दों का प्रयोग जिन-जिन अर्थों में किया गया है, उनके उन-उन अर्थों का निश्चयात्मक रूप से उल्लेख निरूक्त में किया गया है।
ज्योतिष : इससे वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों का समय ज्ञात होता है। यहां ज्योतिष से मतलब `वेदांग ज्योतिष´ से है।
कल्प : वेदों के किस मन्त्र का प्रयोग किस कर्म में करना चाहिये, इसका कथन इसमें दिया गया है। इसकी तीन शाखायें हैं, श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र।
छन्द : वेदों में प्रयुक्त गायत्री, उष्णिक आदि छन्दों की रचना का ज्ञान छन्दशास्त्र से होता है।
हर वेद के हैं चार भाग
चारो वेदों में से प्रत्येक के भी चार-चार भाग बनाए गये हैं। ये हैं :
संहिता : इसमें मंत्रों की विवेचना की गई है।
ब्राह्मण ग्रन्थ : इसमें गद्य के रूप में कर्मकाण्ड की विवेचना है।
आरण्यक : इसमें कर्मकाण्ड के पीछे के उद्देश्य की विवेचना की गई है।
उपनिषद : इसमें परमेश्वर, परब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि ऊपर दिये चार भागों में से ‘संहिता’ को मूल वेद माना गया है जबकि, बाकी के तीन इसकी व्याख्या करते हैं।
उपवेद
महर्षि कात्यायन ने चारों वेदों के चार उपवेद भी बताए हैं। इनमें शामिल हैं, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद। आइए अब जरा इनके बारे में थोड़ा समझते हैं।
स्थापत्यवेद : इस उपवेद में स्थापत्य और वास्तुकला के बारे में बताया गया है।
धनुर्वेद : यह उपवेद युद्ध कला को समर्पित है। हालांकि, दुर्भाग्यवश इसके ग्रंथ विलुप्त प्राय हैं।
गन्धर्व वेद : यह उपवेद गायन कला को समर्पित है।
आयुर्वेद : वैदिक ज्ञान पर आधारित स्वास्थ्य विज्ञान ही इसका मूल विषय है।
वैदिक शाखाएं
महर्षि पतंजलि के महाभाष्य के अनुसार वेदों की कुल 1131 शाखाएं हैं। ऋग्वेद की 21 शाखाएं, सामवेद की 1000 शाखाएं, यजुर्वेद की 101 शाखाएं और अथर्ववेद की 9 शाखाएं हैं। लेकिन दुभाग्य से इन 1131 वैदिक शाखाओं में से वर्तमान में केवल 12 शाखाएं ही मूल वैदिक ग्रंथों में उपलब्ध हैं। मौजूदा शाखाएं हैं –
ऋगवेद : कुल 21 में से मात्र दो शाखाएं हैं यथा, शाकल और शांखायन शाखा
यजुर्वेद : इसमें कृष्णयजुर्वेद की 86 शाखाओं में से केवल चार शाखाओं के ग्रंथ मौजूद हैं यथा, तैत्तिरीय, मैत्रायणीय, कठ और कपिष्ठल शाखा। शुक्लयजुर्वेद की कुल 15 शाखाओं में से केवल 2 शाखाओं के ग्रंथ प्राप्त हैं यथा माध्यन्दिनीय और काण्व शाखा।
सामवेद : कुल एक हजार शाखाओं में से केवल 2 शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं यथा, कौथुम और जैमिनीय शाखा।
अथर्ववेद : कुल 9 शाखाओं में से केवल 2 शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं यथा, शौनक और पिप्पलाद शाखा।