ग्वालियर। बिल्लू, पिंकी, रमन हों या फिर सुपर कमांडो ध्रुव, नागराज और या फिर कंप्यूटर से तेज दिमाग रखनेवाले चाचा चौधरी कहने को तो ये सभी नाम कॉमिक्स किरदारों के हैं। वो किरदार जिनके बारे में सोच भर लेने से हम कल्पनाओं की उस दुनिया में चले जाते हैं जिसमें रहस्य है, रोमांच है, और गुदगुदाने-फुसफुसाने के साथ जिज्ञासाओं का वो समुंदर है जिसमें डूबने से शायद ही कोई अछूता रह पाया हो।
युवाओं में से ऐसा कौन है, जिसने चाचा चौधरी को नहीं पढ़ा है। चाचा चौधरी संभवतः भारत के सबसे लोकप्रिय कार्टून चरित्रों में से एक हैं। कार्टूनिस्ट प्राण कुमार शर्मा ने 1971 मे चाचा चौधरी ने सफ़ेद कागज़ पर जन्म लिया ! लेकिन किताबों या कॉमिक्स की जगह अब बच्चों की पहली पसंद गेजेट्स बन गए हैं।
बीते 18 वर्षों की बात करें तो टेलीविजन और इंटरनेट की दुनिया में दिन-ब-दिन हो रहे नये प्रयोगों के चलते कॉमिक्सों का अस्तित्व कहीं खोता जा रहा है। जहां पहले बच्चे ताउजी के चमत्कारी डंडे और परमाणु की असीम शक्तियों के दीवाने थे, वहीं आज उनकी पहली पसंद डोरेमॉन और कितरेस्तू के गेजेट्स बन चुके हैं।नागराज, भोकाल, धू्रव, तौसी, हवलदार बहादुर, अंगारा और बांकेलाल जैसे न जाने कितने ही कॉमिक्स के हीरो जीवन का एक हिस्सा बने हुए थे, लेकिन आज वो जगह पॉवर रेंजर्स और हीरो ने ले ली है।
शहर के कई 34-35 साल से ऊपर के लोगों का कहना है कि ऐसा लगता है मानो हमारा बचपन पीछे छूट गया है उसी तरह कॉमिक्स भी हमसे बहुत पीछे छूट गयीं हैं, लेकिन कॉमिक्स की यादों को हम अपने से कभी दूर नहीं कर सकता। कॉमिक्सों का एक-एक किरदार हमारे जहन में आज भी बिल्कुल ताजा है, लेकिन आजकल बच्चों में कॉमिक्सों के लिए कोई क्रेज देखने को नहीं मिलता। हां कार्टून नेटवर्क, पोगो और हंगामा के कैरेक्टर्स को वो बखूबी जानते और पहचानते हैं।
शहर के चंद लोगों को ही नहीं कॉमिक्सों के खोते अस्तित्व की चिंता हर उस दीवाने को है, जो कॉमिक्स को देखते ही या उसके बारे में सोचते ही फिर से अपने बचपन में लौट जाता है। आज कॉमिक्स इंडस्ट्री से जुड़ा हर शख्स यह जान चुका है कि कॉमिक्सों का वही पुराना दौर फिर से लौटा कर ले आना मुमकिन नहीं है। अगर चुनौति है तो पन्नों से गुम होती जा रही कामिक्सों जिंदा रखने की।
एक वो भी दौर था
एक समय था जब जन्मदिन पर सारे उपहार एक तरफ और पापा का दिया हुआ कॉमिक्स का डाइजेस्ट एक तरफ होता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। गजब के दिन थे वो जब गर्मियों की छुट्टियां भी कॉमिक्सों के नाम होती थीं। यह वही दौर था जब संयुक्त परिवार एकल परिवार में बदल रहे थे. दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां खत्म हो चलीं थीं। इस दौरान कमरे की अल्मारी से लेकर स्कूल के बस्ते तक कॉमिक्सों ने अपनी बेहिसाब जगह बना ली थी और तो और स्कूल की लाइब्रेरी तक में कॉमिक्स अपन जादू बिखेर रही थी।
जब विडियो गेम बना संकट
90 के दशक में कागज की कीमत में तेजी से बढ़ोतरी हुई जिससे कॉमिक्सों पर संकट मंडराने लगा। नतीजतन कॉमिक्स के दाम भी बेतहाशा बढ़ गये और कुछ निचले तबके लोगों को इससे महरूम होना पढ़ा। दरअसल यही वो दौर था जब बच्चों के सुपरहीरो उनके सपनों की दुनिया से निकल कर टेलिवीजन स्क्रीन पर साकार हो गये और उन्हें साकार करने का काम किया विडियो गेम ने। विडियो गेम ने न सिर्फ कॉमिक्स से अधिक लोकप्रियता बनायी, बल्कि बच्चों के अंदर एक तीव्र इच्छा पैदा कर दी गेम के किरदार को खेलने की। इसी बीच इंटरनेट की आयी क्रांति ने भी कॉमिक्स की बिखरती बिसात पर एक दांव मारा, यानि अब कॉमिक्स आॅनलाइन पढ़ी जा सकती थी, न फटने का डर न खोने का डर सालों साल सहेज कर रखी जा सकने वाली कॉमिक्स का रूप बदला इंटरनेट ने और देखते ही देखते टीवी पर भी कार्टूनों की बाढ़ आ गयी।
धीरे-धीरे विडियो गेम पार्लर और कार्टूनस ने कॉमिक्स के जादू को खत्म करने में अहम भूमिका अदा की। इन तमाम बदलावों ने कॉमिक्स के बाजार को इस कदर प्रभावित किया की प्रकाशन बंद होने लगे। दरअसल विडियो गेम और इंटरनेट के आ जाने से मनोरंजन के रूप में कई साधन सामने आए° जिससे कॉमिक्स का साथ धीरे-धीरे पीछे छूटता गया। कॉमिक्स इंडस्ट्री पर संकट के बादलों के बीच यह भविष्यवाणी भी हो गयी की कॉमिक्स के युग का अंत नजदीक है। यह कहना मुश्किल है कि कॉमिक्स युग का अंत हुआ, लेकिन इस बात को झुठला पाना भी नामुमकिन है।
चुनौति के रूप में है डिजिटल माध्यम
कॉमिक्स की बिक्री तेजी से कम हो रही है, लेकिन हैरी पॉटर की बुक खरीदने के लिए लोग दीवाने हैं। वजह है हैरी के जादू का रहस्य और रोमांच, खास बात यह भी है कि इन किताबों का कंटेंट भी बेहद सशक्त होता है। फिर वो चाहे हल्क हो, स्पाइडर मैन या बैटमैन हो। जब किसी चीज को परोसने का तरीका ही इतना प्रभावशाली होगा तो लोग मोल भाव नहीं करते। इस बात का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि स्पाइडर मैन और बैटमेन पर आज भी फिल्में बन रही हैं, लेकिन हिट कराने का तरीका एक ही है।
नयापन! जी हां नयी टेक्नॉलजी, नयी कहानी, नये इफेक्ट्स यही सारी चीजें हैं जो दर्शकों को थियेटर तक खींच लाती हैं। अब कंटेट तो अपनी ही जगह है लेकिन चुनौति के रूप में है डिजिटल माध्यम. सवाल है कि क्या डिजिटल माध्यम लोगों को उतना ही पसंद आयेगा जितना की प्रिंट कॉमिक्स. इसके साथ ही एक और बड़ी चुनौति है कंटेंट के साथ साथ ग्राफिक्स में बड़े बदलावों की. जब पाठक किसी कहानी को पढ़ता है तो अपने मस्त्षिक में उसे इमैजिन भी करता है और ग्राफिक्स उसके मस्त्षिक को वहां ले जाने में सहायक होते जहां उसे होना चाहिए। आज हमारे पास विकल्प मौजूद हैं जरूरत है तो बस उसे इस्तेमाल करने की।
गौरतलब है कि कॉमिक्सों का कंटेट आज भी वही है, यानि समय से पीछे का। हम इसे समय के साथ भी नहीं रख सकते, इसे जरूरत है आगे ले जाने की. ‘चाचा चौधरी का दिमाग कंप्यूटर से भी तेज चलता है’ इस पंच लाइन ने इसलिए ही प्रसिद्धि पायी, क्योंकि यह वक्त से आगे थी। कंप्यूटर उस समय भविष्य की ही बात थी, इस पंचलाइन को पढ़ लोग कंप्यूटर की तेजी का अंदाजा लगाते थे। जाहिर है आज के दौर में इस पंचलाइन का कोई मतलब नहीं है। तो सोचना होगा की वक्त से आगे क्या हो सकता है। शहर के अधिकांश बुक सेलर्स बताते हैं कि बच्चों की किताबों की ब्रिकी में काफी कमी आई है। कॉमिक्स आना तो बंद ही हो गया है। बच्चों की पंसद बदल गई है। अब उनके पास भी टैब आ गए है और वे अपने मनोरंजन के लिए किताबों या कॉमिक्स की जगह उसी से जुड़ चुके हैं।
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