बापू की पाठशाला: यहां गांधी की टोपी से भी डरती थी ब्रिटिश हुकूमत
बेशक ग्वालियर उन अभागे शहरों में शुमार है, जहां गांधी जी नहीं आ सके। गांधी जी एक बार ग्वालियर रेलवे स्टेशन से होकर दिल्ली गुजर गए थे। वे डिब्बे से भी नहीं उतरे।
ग्वालियर। बेशक ग्वालियर उन अभागे शहरों में शुमार है, जहां गांधी जी नहीं आ सके। गांधी जी एक बार ग्वालियर रेलवे स्टेशन से होकर दिल्ली गुजर गए थे। वे डिब्बे से भी नहीं उतरे।
बावजूद इसके ब्रिटिश हुकूमत गांधी के प्रतीकों से खौफ खाती थी। ग्वालियर अंचल में अगर कोई भी व्यक्ति खादी पहनता था, उस पर तत्काल पुलिस कार्रवाई होती। गांधी टोपी पहनने पर तो कई युवाओं को जेल तक हुई।
खादी व्रती पर रहती थी शंका
दरअसल गांधी जी ने अंचल में जिन लोंगों को खादी व्रती (जो जिंदगी भर खादी के वस्त्रों का ही उपयोग करते थे) बनाया, ब्रिटिश हुकूमत और उनके भारतीय सहयोगियों ने हमेशा शंका की निगाह से देखा। उन्हें लगता था कि ये खादी कहीं सत्याग्रह या अहयोग आंदोलन न शुरू कर दें।
एेसे खादी व्रती कांग्रेसियों में भजनलाल शर्मा, तखतमल जैन, गोपाल कृष्ण पौराणिक और मुरलीधर धुले शामिल थे। भजनलाल शर्मा तो भारत छोड़ो अंादोलन में शिरकत करने मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में भी गए थे। बाद में जब वे 11 अगस्त को ग्वालियर आए तब तक ग्वालियर में खादी और गांधी टोपी पहनना अपराध घोषित हो चुका था।
गांधी के खादी व्रती पौराणिक और भजनलाल शर्मा के अलावा रतीराम भटनावर खादी बनाने चरखा ट्रेनिंग करने 1927 में साबरमती आश्रम भी गए। यहां वे प्रदर्शनी लगाते थे। गांधी जी की प्रेरणा से ही ग्वालियर की उन जागीरों के खिलाफ खादी व्रतियों ने आंदोलन खड़ा किया, जिन्हें पुलिसऔर दीवानी अधिकार थे। इन खादी व्रतियों मं शिव शंकर रावल,हरीराम चौबे,स्वामी रामानंद,राधेलाल प्रमुख थे, जिन्हें जिला बदर किया गया। – नई सड़क निवासी मुरलीधर धुले गांधी जी के बेहद करीबी थे। वे यरवदा जेल तक गांधी के साथ रहे। देश जब आजाद हुआ तो वे मध्य भारत सरकार में गृह मंत्री तक रहे। साइकिल से चलते थे।
कई बार विधानसभा मे चुने गए। ग्वालियर में खादी का सफर 90 साल पहले और अब तक ग्वालियर में मध्यभारत खादी संघ का गठन 1930 में हुआ। हालांकि इनकी गतिविधियां ग्वालियर के बाहर ही सक्रिय रहीं। बाद में रियासत का रुख उदार हुआ। हालांकि अंचल में खादी आंदोलन की दस्तक 1924 में ही हो गई थी। हालांकि वह गुपचुप थी।
खादी और चरखा– चरखा स्वावलंबन और खादी स्वदेशी का का प्रतीक है। चरखे ने विदेशी निर्भरता खत्म कर दी। करोड़ों की विदेशी मुद्रा बचाई। जानकर आश्चर्य होगा कि चरखे का निर्यात लंकाशायर के मशीनों से बने कपड़े के आयात से अधिक था। चरखे ने ग्राम स्वराज और उसकी आत्म निर्भरता मजबूत किया। सही मायने में खादी स्वदेशी का पहला मंत्र है। अब ये प्रतीक है मेक इन इंडिया का। अलबत्ता इस मेक इन इंडिया में “आदमी” गायब है।
ग्वालियर में चरखा आंदोलन यूं तो समूचे देश में चरखा आंदोलन 1918 में शुरू हुआ,लेकिन ये ग्वालियर में 1927 में शुरू हुआ। हालांकि ये गुपचुप था। मध्यभारत का चरखा आंदोलन तखतमल जैन जो देश की आजादी के बाद मुख्यमंत्री बने, के कंधों पर था। वे चरखा अपने घर में और खादी अपने कंधे पर लेकर चलते थे। आजीवन ये उसके व्रती रहे।
जिन्हें आज भी पसंद है खादी और चरखा- आज चार दशकों से अधिक समय से मध्य भारत खादी संघ के सचिव बने हुए हैं। उनका कहना है कि सरकारों की उपेक्षा ने खादी को झटका दिया है। बावजूद खादी का आकर्षण कम नहीं है। बेशक बांस या लकड़ी के चरखे अब बहुत कम हैं,लेकिन हमने सैंकड़ों की संख्या में चरखे जुटाए हैं। ताकि हम नई पीढ़ी को चरखे के जरिए गांधी दर्शन को समझा सकें। चरखे से बनी खादी आज भी देश की मिट्टी में रची बसी सौंधी खुशबू स्व निर्भरता का अहसास कराती है। मैं आज भी पसंद करता हूं। ये हमारे लिए मिशन है। हां ये सच है कि अब सरकारों के रुख से खादी की जमीन कमजोर होती जा रही है।