भोपाल। आज वल्र्ड थिएटर डे है। दुनिया थिएटर के कुछ चुनिंदा अदाकारों को ही पहचानती है। ये वे नाम हैं, जिन्हें लोग भुलाना भी नहीं चाहते। इन्हीं नामों में से एक हैं हबीब तनवीर। वैसे तो ये जन्मे पाकिस्तान के स्वात में थे, पर भोपाल के रंगमंच को इन्होंने ही ऑक्सीजन दी। मतलब भोपाल का थिएटर इनके बिना आज अधूरा है। वर्ष 2009 में तनवीर साहब इस दुनिया को अलविदा कह गए, पर इनकी दो ख्वाहिशें अंतिम सांस तक अधूरी ही बनी रहीं। हबीब दा अपनी अपनी आत्मकथा लिखा रहे थे। इसका एक हिस्सा पूरा भी हुआ, पर बीच में ही उसकी सांसें टूट गईं। 86 साल की उम्र में भी हबीब दा में किसी नौजवान से कम ऊर्जा नहीं थी। वे हर वक्त काम के लिए लालायित रहे।
आइए हम बताते हैं वो दो ख्वाहिशें….
पहली: हबीब दा के वालिद यानी पिता चाहते थे कि वे एक बार पेशावर जरूर जाएं। अपने जीवन के अंतिम दिनों में हबीब साहब ने अपनी इस ख्वाहिश का जिक्र किया था। उन्होंने बताया था कि उनके अब्बा चाहते थे कि वे पेशावर के ऑडिटोरियम में कुछ पेश करें। वहां के चप्पली कबाब जरूर खाएं।
दूसरी: अफगानिस्तान के लोक कलाकारों के साथ एक वर्कशॉप करना। 1972 में सरकार की ओर से उन्हें फरमान मिला कि मालूम करो कि काबुल में थियेटर वर्कशॉप हो सकती है कि नहीं। तब बन्ने भाई सज्जाद जहीर के साथ काबुल पहुंचे थे। कहवा पीते हुए हमने काबुल में थियेटर की बातें कीं। वहां जबरदस्त लोक थियेटर है। अफगान की तवायफोंं का नाच लगातार चलता है, पर एक गम था वो ये कि वहां हालात थिएटर के लायक नहीं थे।