असहिष्णुता को लेकर चल रहे हल्ले के बीच लगा था कि साहित्य पर्व में बयानों के बाणों से महाभारत होना तय है। पिछले अनुभव भी कुछ कम नहीं हैं। पर यह क्या? यहां तो पवित्र ग्रंथ का मूल नाम सार्थक होता दिख रहा है। इसे ‘जय संहिता‘ कहा जाता है। तो साहित्य उत्सव की जय हो गई। जयपुर का नाम कुछ और ऊंचा हुआ। चलो बात महाभारत से ही करते हैं।
महाभारत में 18 पर्व हैं। वहां भीष्म पर्व, द्रोण पर्व, कर्ण पर्व, शैल्य पर्व घनघोर युद्ध की याद दिलाते हैं। तब जाकर शोक होता है और शांति पर्व आता है। अब अपने साहित्य पर्व ने इन युद्ध के पर्वों को लांघकर सीधा ‘शांति पर्व‘ में ही प्रवेश कर लिया। वो भी उस माहौल में जब असहिष्णुता के विष भुजे तीर लेकर मीडिया के आगे कलम के कुछ योद्धा उपस्थिति का अहसास करा रहे हैं।
और हां, इस महाभारत में भी करण का जौहर दिखा, फिर भी हंगामा नहीं हुआ। बाहर से कोई विरोध प्रदर्शन करने नहीं पहुंचे, किसी संस्था ने बयान जारी नहीं किया कि यहां मर्यादा लांघी जा रही है तो यही इस ‘शांति पर्व‘ की ‘जय‘ है।
बस, अंतिम दिन ‘जय संहिता‘ का क्रम कायम रहे और ‘अनुशासन पर्व‘ भी सार्थक हो जाए। अगले साल फिर से मिलने के वादे के साथ शब्दों के सारथी आज विदा हो जाएंगे।
इन चार दिन में एक सबसे बड़ी बात जो उभरकर आई वो ये कि हिंदी, उर्दू भाषा और देशज मुद्दे इस पर्व के गर्व बन गए। आयोजक इसे स्वीकार करने में हिचकेंगे, लेकिन सत्र वही मुस्काते दिखे, तालियों की गडग़ड़ाहट और सवालों की बौछारें, मंच पर कहकहे वहीं थे जहां हिंदी में संवाद था। हिंदी ही नहीं, अंगे्रजी की छतरी के नीचे हुए सत्रों में भी ये आलम रहा।
ये वो सत्र थे जिनमें तड़का देशज मुद्दों का था। अमरीकी प्रोफेसर के ‘रामचरित मानस‘ के अनुवाद वाले सत्र में जब उनके मुख से चौपाइयां निकली तो मुगल टेंट की तालियां सुन सब उस ओर दौड़े आए।
अमीश त्रिपाठी, जावेद अख्तर, गुलजार के सत्रों में भीड़ इसकी गवाह है। राजस्थान की माटी की महक की कविता ‘धरती धोरां री‘ का जब गान हुआ तो हर कोई मायड़ की महक से फूला नहीं समां रहा था।
Hindi News / Jaipur / JLF BLOG: विवादों के युद्ध बिना आया शांति पर्व